'चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता ?' के आधार पर सूरदास की मन:स्थिति का वर्णन कीजिए।
सूरदास एक दृष्टिहीन व्यक्ति है। वह अपने जीवन से संतुष्ट है। वह भीख माँगता है और भीख माँगकर उसने लगभग पाँच सौ से कुछ अधिक रुपए जमा कर लिए हैं। वह इन पाँच सौ रुपयों को एक पोटली में रखता है। ये रुपए चाँदी के सिक्के हैं। वह दूसरों के प्रति सदा दया-भाव तथा सहानुभूति रखता है। गाँव में भैरों नामक एक व्यक्ति भी रहता है जो सूरदास से ईर्ष्या करता है। जब भैरों अपनी पत्नी सुभागी को पीटता है तो वह भागकर सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है। गाँव के लोग सुभागी के सूरदास से अनैतिक संबंधों के बारे में झूठा प्रचार करते हैं। इसी कारण भैरों सूरदास से जलता है, वह उसकी झोंपड़ी को तो जला ही देता है साथ ही उसके चाँदी के पाँच सौ से अधिक रुपयों की पोटली भी चुरा लेता है। जब सूरदास की झोंपड़ी धू-धू करके जलती है तो आस-पास के रहनेवाले लोग एकत्रित हो जाते हैं। सभी लोग झोंपड़ी जलने पर दुख व्यक्त करते हैं। लोगों को भी इस बात का पता है कि भैरों सूरदास से ईर्ष्या करता है इसलिए जब जगधर सूरदास से पूछता है कि क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था ? तो नायकराम नामक व्यक्ति कहता है, ''चूल्हा ठंडा किया होता तो, दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता?'' जब आग बुझ गई तो सभी लोग अपने-अपने घर चले गए और सूरदास वहीं बैठकर आग के ठंडी होने का इंतज़ार करने लगा। उसे इस बात का दुख नहीं था कि उसकी झोंपड़ी जलकर राख हो गई बल्कि उसके मन में इस बात का दुख था कि कहीं वह पोटली भी न जल गई हो जिसमें उसकी उम्रभर की कमाई थी। उस पोटली को वह अपने पूर्वजों तथा उसके द्वारा संचित कोष मानता था। यही पोटली उसके लोक-परलोक और दीन-दुनिया में आशा का दीपक थी। इस प्रकार पोटली के खो जाने या जल जाने का भय सूरदास को दुखी कर रहा था।
भैरों ने सूरदास की झोंपड़ी क्यों जलाई ?
अथवा
सूरदास किसकी ईर्ष्या का शिकार हुआ था? ईर्ष्या का कारण क्या था ?भैरों सूरदास के पड़ोस में रहनेवाला एक ईर्ष्यालु व्यक्ति है। अपनी पत्नी सुभागी के साथ सदा उसकी अनबन रहती है। इसी बात को लेकर वह सदा सुभागी को पीटता रहता है। सुभागी भैरों की मार से बचने के लिए सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है तथा कुछ समय के लिए सूरदास की झोंपड़ी में ही रहने लगती है। सूरदास की झोंपड़ी में रहने के कारण भैरों सूरदास और सुभागी दोनों से नफ़रत करता है। गाँव के लोग भैरों को यह भी बताते हैं कि सूरदास और सुभागी के अनैतिक संबंध भी हैं। इसलिए भैरों सूरदास से बदला लेना चाहता है। वह न केवल सूरदास की झोंपड़ी में आग लगा देता है, साथ ही उसके पाँच सौ से अधिक चाँदी के सिक्कों की पोटली को भी चुरा लेता है। जब जगधर भैरों से यह पूछता है कि तुझे झोंपड़ी जलाने से क्या मिला तो उत्तर में भैरों स्पष्ट कहता है—''यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना (ज़ुर्माना) है।'' भैरों को लगता है कि सूरदास की झोंपड़ी जलाकर उसके दिल की आग ठंडी हो गई है। क्योंकि सूरदास ने मेरी आबरू बिगाड़ दी है, इसलिए मैंने उसकी झोंपड़ी जलाकर कोई पाप नहीं किया है। इस प्रकार भैरों ने अपनी पत्नी सुभागी और सूरदास के अनैतिक संबंधों के शक के कारण सूरदास की झोंपड़ी जलाई।
'यह फूस की राख नहीं, उसकी अभिलाषाओं की राख थी' संदर्भ सहित विवेचना कीजिए।
सूरदास एक दृष्टिहीन और संघर्षशील व्यक्ति है। वह सारी उम्र एक झोंपड़ी में रहता है। वह भीख माँगकर अपने परिवार का पेट पालता और भीख के पैसों में से कुछ पैसे जमा करता रहता था। इसी कमाई से उसके पास लगभग पाँच सौ से अधिक चाँदी के रुपए एकत्रित हो गए थे। उसका पड़ोसी भैरों उससे नफ़रत करता है, क्योंकि जब वह अपनी पत्नी सुभागी को पीटता है तो सुभागी भागकर सूरदास की झोंपड़ी में छिप जाती है। सूरदास सदा उसकी रक्षा करता है। यही बात भैरों को बुरी लगती है। साथ में गाँव के लोग भी यह बात फैला देते हैं कि सुभागी और सूरदास के आपस में अनैतिक संबंध हैं। इसी बात से जल-भुनकर भैरों सूरदास की झोंपड़ी में आग लगा देता है। जब झोंपड़ी जलकर राख हो गई तो सूरदास उस राख को मुटठियों में भर-भर यह पता लगाने की कोशिश करता है कि मेरी चाँदी के रुपयों से भरी पोटली कहाँ है। उसे लगता है कि अगर पोटली जल भी गई तो चाँदी तो मिल ही जाएगी। इसलिए वह सारी राख को छान मारता है। कभी उसके हाथ में कोई बरतन आ जाता कभी कोई ईंट का टुकड़ा। वह इस राख को इस प्रकार टटोल रहा था जैसे कोई पानी में मछलियाँ टटोल रहा हो। जब उसके हाथ पोटली न लगी तो वह निराश और बेचैन हो गया। अचानक उसका पैर फिसल गया और वह नीचे गिर गया उसके मुख से सहसा चीख निकली। वह वहीं राख पर बैठकर रोने लगा। अपनी बेबसी का इतना बड़ा दुख उसे पहले कभी नहीं हुआ था। इसी संदर्भ में लेखक कहते हैं, ''यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी।"
जगधर के मन में किस तरह का ईर्ष्या-भाव जगा और क्यों ?
जगधर को पूर्ण विश्वास था कि सूरदास की झोंपड़ी भैरों ने ही जलाई है। यही सोचकर वह सीधा भैरों के पास गया। वह भैरों से कहता है कि लोग तुम्हारे ऊपर शक कर रहे हैं। पहले तो भैरों आग लगाने की बात नहीं मानता, परंतु जगधर के सामने वह मानता है कि मैंने ही दियासिलाई से सूरदास की झोंपड़ी जलाई है। वह जगधर को वह थैली भी दिखाता है, जिसमें रुपए भरे हुए थे। जगधर के मन में भी आया कि भैरों आधे रुपए उसे दे दे। पहले तो वह भैरों को समझाता है कि वह उसके रुपए वापस कर दे, परंतु भैरों यह बात मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। इसलिए जगधर भैरों को पुलिस की मार के बारे में बताता है और वह यह भी कहता है कि गरीब की हाय बड़ी जानलेवा होती है। इस बात का भी भैरों पर कोई असर नहीं होता। फलस्वरूप जगधर की छाती पर साँप लोटने लगा। वह मन-ही-मन यह सोचने लगा कि भैरों के पास भी अब उससे अधिक रुपए जमा हो गए हैं। अब वह ऐश की ज़िदगी व्यतीत करेगा। मौज़ उड़ाएगा। वह अपने बारे में भी सोचता है कि मैं कौन दिनभर पुन्न का काम करता हूँ ? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ। बाट खोटे रखता हूँ। तेल की मिठाई घी की कहकर बेचता हूँ। वह यह काम करने के पीछे अपनी मजबूरी मानता है। वह मन-ही-मन एक बार यह भी कल्पना करता है कि काश ! ऐसा ही कोई माल उसके हाथ भी पड़ जाए तो जिंदगी सफल हो जाए। वह भैरों के अमीर होने की बात को लेकर जल रहा था। इसलिए उसके मन में ईर्ष्या का बीज अंकुरित हो गया। वह सूरदास के पास जाता है और उसे यह बताता है कि उसके रुपयों की थैली भैरों ने चुरा ली है।
'सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा'। इस कथन के संदर्भ में सूरदास
की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
अथवा
'खेल में रोना कैसा ? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए, रोने के लिए नहीं'। इस कथन के आलोक में सूरदास का चरित्र-चित्रण कीजिए।
सूरदास की झोंपड़ी भैरों ने जलाकर राख कर दी थी। वह सारी रात झोंपड़ी की राख को मुट्ठियों में लेकर छानता रहा, परंतु चाँदी के सिक्कों की पोटली उसे कहीं नहीं मिली। जगधर उसे यकीन दिलाता है कि तुम्हारी झोंपड़ी भैरों ने जलाई और रुपयों की पोटली भी उसी के पास है। चूँकि सूरदास भिखारी के पास धन संचय को पाप मानता है इसलिए वह जगधर को अपने पास रुपए होने का अहसास नहीं होने देता, परंतु उसे यह दुख है कि उसके जीवनभर की संचित राशि अब उसके पास नहीं है। वह इन पैसों से गया जाकर अपने पूर्वजों के पिंडदान करना चाहता था, एक कुआँ बनवाना चाहता था और वह इन्हीं पैसों से मिठुआ का विवाह करना भी चाहता था। इस प्रकार रुपए चोरी होने से उसकी सारी अभिलाषाएँ राख हो चुकी थीं। उसका मन निराशा और पीड़ा से भर गया था। वह अपने निराश मन को दिलासा देता हुआ सोचता है कि ये रुपए मेरे थे ही नहीं। शायद पिछले जन्म में मैंने भैरों के रुपए चोरी किए होंगे। यह उसी का दंड है। सुभागी के साथ अनैतिक संबंध का कलंक भी सिर पर लग गया था। वह मन-ही-मन पछताता है कि धन गया, घर गया, आबरू गई, थोड़ी-बहुत ज़मीन बची हुई है वह भी न जाने कब चली जाएगी। वह अपने अंधेपन को एक बड़ा दुख मानता हुआ परमात्मा से कहता है, ''अंधापन ही क्या थोड़ी विपत है कि नित ही एक-न-एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता है, चार खोटी-खरी सुना देता है।'' वह इसी दुख के कारण पूरी तरह से टूट चुका है। इन्हीं दुखजन्य विचारों में खोकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। अचानक उसे लगा कि जैसे घीसू मिठुआ के साथ खेलते हुए पूछता है, ''तुम खेल में रोते हो।'' मिठुआ रोता हुआ घर की ओर चला आ रहा था। सूरदास निराश, हताश और चिंतायुक्त वातावरण में डूबा हुआ था उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसका हाथ पकड़कर खड़ा करते हुए कह रहा हो, ''सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाज़ी पर बाज़ी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, खेल हँसने के लिए है, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं'' यही सुनकर सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।
'तो हम सौ लाख बार बनाएँगे' इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्र का विवेचन कीजिए।
झोंपड़ी के जल जाने और रुपयों की पोटली के खो जाने के कारण हताश, निराश सूरदास में एक अजीब शक्ति और उत्साह का संचार होता है। वह उठ खड़ा होता है अपने दोनों हाथों से राख के ढेर को ऊपर उड़ाने लगता है तभी वहाँ घीसू और मिठुआ के साथ लगभग बीस लड़के आकर सूरदास के साथ राख को उड़ाने लगते हैं। वे सूरदास से अनेक प्रश्न करते हैं। वहाँ राख की वर्षा होने लगी। सारी राख इधर-उधर बिखर गई। भूमि पर अब केवल काला निशान रह गया था। इसी समय मिठुआ सूरदास से पूछता है, ''दादा, अब हम रहेंगे कहाँ ?'' सूरदास उत्तर देता है, ''दूसरा घर बनाएँगे।'' अगर फिर किसी ने आग लगा दी तो मिठुआ के प्रश्न का उत्तर देते हुए सूरदास कहता है, ''तो फिर घर बनाएँगे।'' ''हज़ार के बाद सौ लाख बार अगर हमारा घर जला दिया तो ?'' मिठुआ के इस प्रश्न के उत्तर में सूरदास का दृढ़ निश्चय बोल उठता है, ''तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।'' इस वाक्य में सूरदास के चरित्र की महत्वपूर्ण विशेषता व्यक्त होती है कि वह दृढ़ निश्चय और पक्के इरादे का व्यक्ति है। वह परिश्रमी, भावुक संवेदनशील और हठी स्वभाव का व्यक्ति है।