मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है तब मालवा के जनजीवन पर इसका क्या असर पड़ता है?
मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लग जाती है तो वहाँ के सभी नदी-नाले, ताल-तलैया पानी से भरकर बहते हैं। कई जगह बाढ़ की स्थिति बन जाती है। लगातार पानी बरसने से खड़ी फसल पानी में डूब जाती है। गाँव और शहरों में नदियों का पानी घुस जाता है। इससे लोगों की दिनचर्या प्रभावित होती है। जान और माल का भी नुकसान होता है। कई बार अधिक फसल खराब होने के कारण अन्न की कमी हो जाती है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर सोयाबीन की फसल खराब हो गई है, तो गेहूँ और चने की फसल बढ़िया होगी—ऐसा भी लोगों का अनुमान है। लगातार झड़ी लगने से तालाब पानी से लबालब भर जाते हैं; फलस्वरूप गर्मी के दिनों में सूखे की स्थिति पैदा नहीं होती। इस प्रकार मालवा में बरसात की झड़ी से जनजीवन में आशा और निराशा का वातावरण बन जाता है।
अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था? उसके क्या कारण हैं?
अथवा
''पग-पग नीर वाला, मालवा सूखा हो गया''—
कैसे? 'अपना मालवा' पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
हमारी जीवन-शैली तथा रहन-सहन के तौर-तरीकों ने ऋतु-चक्र को प्रभावित किया है। फसलें उगाने और काटने के समय में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। फलस्वरूप मौसम में भी परिवर्तन होना लाज़मी है। वायुमंडल में लगातार बढ़ता तापमान बेमौसम बरसात को निमंत्रण देता है। जब ग़ैर-बरसाती महीनों में अत्यधिक बरसात हो जाती है, तो मानसून अव्यवस्थित हो जाता है। इसके फलस्वरूप बरसात के महीनों में कम बारिश होती है। मालवा क्षेत्र की भी यही कहानी है, इसलिए गत वर्षों की अपेक्षा अब मालवा क्षेत्र में कम पानी बरसता है।
हमारे आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले ज़माने के लोग कुछ नहीं जानते थे?
प्राकृतिक रूप से बहती नदियों के बहाव को बड़े-बड़े बाँध बनाकर अप्राकृतिक रूप से रोका गया है। फलस्वरूप उन बाँधों के आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को स्थानांतरित कर दिया जाता है। वे अपने पैतृक घरों को छोड़कर नए स्थानों की ओर चले जाते हैं। इन नए स्थानों पर पहले जैसी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। हमारे आज के इंजीनियर ऐसा समझते हैं कि उन्होंने बड़े-बड़े बाँध बनाकर पानी का सुव्यवस्थित ढंग से प्रयोग किया है। पहाड़ों से निरंतर पानी बहकर झीलों में इकट्ठा हो जाता है और पहाड़ की चोटियाँ पानी के बिना सूखी रह जाती हैं। सतपुड़ा और विंध्याचल जैसे छोटे पहाड़ों पर पानी न रुकने के कारण वहाँ वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे सूख जाते हैं। पहाड़ों की हरियाली कहीं खो-सी जाती है। वस्तुत: आज के इंजीनियर पर्यावरण की रक्षा करने की बजाय उससे खिलवाड़ करते हैं। वे पढ़े-लिखे और बुद्धिमान माने जाते हैं, इसलिए वे पहले ज़माने के लोगों को कुछ न जानने वाले कहते हैं।
मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज रिनेसां के बहुत पहले हो गए। पानी के रख-रखाव के लिए उन्होंने क्या प्रबंध किए?
मालवा प्रदेश में विक्रमादित्य, राजा भोज व राजा मुंज जैसे प्रतापी और प्रकृति के प्रति सही दृष्टिकोण रखने वाले राजा हुए हैं। पश्चिमी जागृति से पहले ही उन राजाओं ने अपने समय में जलयोजना के कार्यक्रम सुचारु रूप से चलाए थे। वे जानते थे कि अगर इस क्षेत्र में हरियाली रखनी है, तो पठार पर पानी को रोककर रखना होगा। इसलिए इन सभी राजाओं ने तालाब और बड़ी-बड़ी बावड़ियों का निर्माण करवाया। बरसात का पानी पठार के ऊपर तालाब और बावड़ियों में रोका गया। पठार पर लगातार पानी रुका रहने से धरती के गर्भ का पानी जीवंत रहा। फलस्वरूप पानी का रखरखाव ठीक प्रकार से हो सका। इस प्रकार पश्चिमी जागृति से पूर्व ही मालवा प्रदेश के राजाओं ने पानी का रखरखाव वैज्ञानिक पद्धति से किया था।
'हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है'—क्यों और कैसे?
आधुनिक सभ्यता औद्योगिकीकरण की सभ्यता है, जिसमें प्रतिदिन उद्योग-धंधों में बढ़ोतरी हो रही है। नदियों के किनारे कस्बों और नगरों में लगातार जिसमें वृद्धि हो रही है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ गंदे पानी में भी बढ़ोतरी हो रही है। यह गंदा पानी नालों के माध्यम से नदियों में छोड़ा जाता है। इसके साथ ही बड़े उद्योगों और फैक्टरियों का रसायन-मिश्रित गंदा पानी भी नदियों में निरंतर प्रवेश करता है। प्लास्टिक के सामान और पोलीथीन जैसे पदार्थ नदियों के प्राकृतिक बहाव को बाधित करते हैं। रुका हुआ पानी सड़ जाता है। पुराने समय की नदियों का निर्मल और स्वच्छ पानी अब मैला और गंदला हो रहा है। छोटी नदियों की बात ही क्या गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी बड़ी नदियों में भी अब काला पानी बहता है। बड़ी-बड़ी नदियाँ, जिनमें कभी निर्मल और स्वच्छ जल की धारा बहा करती थी; अब बड़े शहरों और महानगरों के गंदे पानी को ढोती हैं। नदियों के प्राकृतिक बहाव को बड़े-बड़े बाँध बनाकर रोक दिया गया है। अब इन नदियों में स्वच्छ और निर्मल पानी न होकर गंदा पानी बहता है। इस प्रकार हमारी सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है।
लेखक को क्यों लगता है कि 'हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है'। आप क्या मानते हैं?
आधुनिक युग में निरंतर बढ़ रहे औद्योगिकीकरण के कारण प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आए हैं; ऋतु-चक्र लगातार परिवर्तित हो रहा है। बरसात के दिनों में बरसात नहीं होती और ग्रीष्म ऋतु की अवधि लंबी हो गई है। कई बार सर्दी में अधिक सर्दी नहीं पड़ती और कई बार मार्च के महीने में पर्वतों पर बर्फ़ पड़ जाती है। यह सब वातावरण की अव्यवस्था का परिणाम है। हमारे रहन-सहन और जीवन-शैली ने वायुमंडल को प्रभावित किया है। फसलों को बोने और काटने के समय परिवर्तित हो गए हैं। फलस्वरूप जलवायु के क्रम में परिवर्तन हो गया है। समुद्रों का पानी लगातार गर्म हो रहा है; ध्रुवों पर बरफ पिघल रही है। सदानीरा नदियों का जल सूख गया है। गंदे पानी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। लद्दाख में बर्फ़ गिरने की बजाय वर्षा हो रही है। राजस्थान में अब सूखा पड़ने के स्थान पर बाढ़ आ रही है। कारखानों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ज़हरीली गैसें वायुमंडल और पर्यावरण को बिगाड़ रही हैं। ये गैसें यूरोपीय महाद्वीप और अमेरिका के औद्योगिकीकरण के कारण अधिक फैली हैं। जिस औद्योगिकीकरण के कारण यूरोपीय देश और अमेरिका अपनी उन्नति की कहानी गढ़ते हैं, वही औद्योगिकीकरण दुनिया के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। इसलिए लेखक को विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता लगती है।
धरती का वातावरण गर्म क्यों हो रहा है? इसमें यूरोप और अमेरिका की क्या भूमिका है? टिप्पणी कीजिए।
आधुनिक युग औद्योगिकीकरण का युग है। प्रत्येक देश औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है। प्रत्येक देश को यह लगता है कि उद्योग ही उसके विकास और उन्नति का सबसे बड़ा माध्यम है। वह उद्योगों के माध्यम से अपनी पूँजी-व्यवस्था को सुदृढ़ कर सकता है। पूँजी से देश का विकास हो सकता है। परंतु ये देश भूल जाते हैं कि इन उद्योगों से निकलने वाला धुआँ और गंदा व विषैला पानी नदियों के स्वच्छ जल को दूषित कर रहा है। पानी में रहने वाले जीव-जंतुओं का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। फसलों के बोने और काटने के समय में लगातार हो रहे परिवर्तन के कारण वातावरण में गर्मी बढ़ी है। कारखानों से निकलने वाली कार्बन-डाइऑक्साइड जैसी ज़हरीली गैसें वायुमंडल को गरम कर रही हैं। समुद्रों का पानी लगातार गरम हो रहा है। पर्वतों से लगातार बर्फ़ पिघलकर मैदानों की ओर बह रही है। नदियों का निरंतर बहाव बाँध बनाकर रोक दिया गया है। यूरोप और अमेरिका में उद्योग-धंधे अधिक मात्रा में लगाए गए हैं। वे इन्हीं उद्योग-धंधों के बल पर विकास की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं। वे पर्यावरण को ताक पर रखकर इन उद्योग-धंधों को चला रहे हैं। इसलिए गरम होते वातावरण का एक बड़ा कारण औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप निकलने वाली गरम और विषैली गैसें हैं। इस प्रकार धरती के वातावरण को गरम करने और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने में यूरोपीय देशों और अमेरिका की बड़ी भूमिका है।
'अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ू जीवन-पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा'। इस घोषणा पर अपनी टिप्पणी दीजिए।
लअमेरिका आज के युग में महाशक्ति बनकर उभरा है। उसकी इस महाशक्ति के पीछे उसका औद्योगिकीकरण है। अमेरिका में उद्योग-धंधे एक बड़े स्तर पर लगाए गए हैं। वह इन उद्योग-धंधों और कारखानों में सामान बनाकर दूसरे देशों को बेचता है। फलस्वरूप उसकी पूँजी-व्यवस्था सुदृढ़ हो रही है। इन उद्योग-धंधों और कारखानों से निकलने वाली गैसों से वायुमंडल और गंदे पानी से नदियों का पानी दूषित हो रहा है, जिसके कारण समुद्र के पानी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इससे समुद्र और नदियों में रहने वाले जीव-जंतुओं के लिए भी ख़तरा पैदा हो गया है। इस प्रकार यह खाऊ-उजाड़ू जीवन-पद्धति सभी प्राणियों के लिए नुकसानदेय है। अमेरिका इस सभ्यता के बल पर ही अपनी ताकत को बढ़ाना चाहता है, इसलिए वह अपने औद्योगिकीकरण पर रोक नहीं लगाना चाहता। वह इस खाऊ-उजाड़ू सभ्यता के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहता। लेकिन अमेरिका की जिद्द संसार के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।