अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
अगहन के महीने में दिन छोटे और रातें लंबी हो जाती हैं। मौसम ठंडा हो जाता है। इस मास में विरहिणी नागमती की विरह-व्यथा और भी अधिक बढ़ गई है। वह अपने पति के असहनीय वियोग को सहन नहीं कर पा रही है। उसे पति की जुदाई में लंबी रातें काटना कठिन प्रतीत हो रहा है। ठंड से वह काँपती रहती है और सर्दी के वस्त्र भी नहीं बनवाती है क्योंकि उसका साज-श्रृंगार देखने वाला पति तो उससे दूर है। शीत आग बनकर उसे जलाता रहता है। उसे लगता है कि पति के वियोग में उसका यौवन और जीवन इसी प्रकार से विरहाग्नि में जलकर राख हो जाएगा।
'जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा' पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
नागमती अपने पति के वियोग में इतनी अधिक व्याकुल है कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह दिन प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है। पूस के महीने की ठंड तो उसके प्राण ही ले रही है क्योंकि उसका पति उसके पास नहीं है, जिसकी निकटता उसे ठंड से छुटकारा दिला सकती थी। उसे लगता है कि पति-वियोग का यह विरह रूपी बाज़ उसके चारों ओर ऐसे चक्कर लगा रहा है जैसे किसी पक्षिणी को खाने के लिए वह चक्कर लगाता है। यह विरह उसे जीवित ही नहीं रहने देगा और जब वह मरेगी तब भी प्रियतम के वियोग में ही मरेगी। इसी वियोग के कारण वह रक्तहीन-सी हो गई है। उसके शरीर के अंग शिथिल हो गए हैं, हड्डियाँ सूख गई हैं और वह निष्प्राण-सी होकर रह गई है।
माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति होती है?
माघ महीने में बहुत भयंकर सर्दी पड़ने लगती है। प्रियतम के वियोग में विरहिणी नायिका के दिन काटे नहीं कटते हैं। माघ की वर्षा के समान उसकी आँखों से निरंतर विरह के आँसू बहते रहते हैं। इन आँसुओं से भीगे वस्त्र उसके शरीर को बाण के समान चुभते रहते हैं। माघ की तेज़ हवा और ओलों की वर्षा उसके जीवन को और भी अधिक कष्टप्रद बना देती है। माघ के माह में वनस्पतियों में रस का उद्रेक होता है परंतु प्रियतम के वियोग में उसका जीवन रसहीन होकर रग गया है। वह दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। उसका शरीर तिनके के समान हल्का हो गया है। माघ की तेज़ हवाएँ उसे हिलाती रहती हैं। वह तो विरह रूपी अग्नि में जलकर राख के समान उड़ने के लिए तैयार है।
राम के प्रति अपने श्रद्धा भाव अथवा प्रेम को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें फागुन के महीने में गिरते हैं। इसका विरहिणी से यह संबंध है कि जिस प्रकार फागुन के महीने में वृक्षों के पत्ते पीले पड़कर झड़ने लगते हैं और ढाक-वनी के ढाकों के पत्ते भी झड़ जाते हैं, उसी प्रकार से प्रियतम के वियोग में विरहिणी की काया दिन-प्रतिदिन क्षीण होते-होते पीली पड़ गई है। फागुन में शीत का प्रकोप बढ़ गया है तथा तेज़ ठंडी हवाएँ चल रही हैं। विरहिणी को लगता है कि प्रियतम के वियोग में वह इन शीतल तथा तेज़ हवा के झोंकों का सामना नहीं कर पाएगी। उसकी पीली पड़ी देह भी उसी प्रकार से विरह के झोंकों से नष्ट हो जाएगी, जैसे तेज़ हवा से वृक्षों के पीले पत्ते झड़ जाते हैं। उसे अपने प्राणांत होने की आशंका हो रही है।
प्रथम दो छंदों में से अलंकार छाँटकर लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौंदर्य पर टिप्पणी कीजिए।
(i) कवि ने अनुप्रास, उपमा, विरोधाभास, उत्प्रेक्षा और स्वरमैत्री का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया है जिससे कवि के कथन को सुंदरता प्राप्त हुई है। 'जरै बिरह ज्यों दीपक बाती' के द्वारा नायिका को वियोग की ज्वाला में वैसे ही जलता हुआ दिखाया है जिस प्रकार दीपक की बत्ती जलती है। 'घर-घर' का कवि ने सभी घरों का बोध कराया है। 'अबहूँ फिरै फिरै रंग सोई' में यमक अलंकार है। पहला 'फिरै' राजा रत्नसेन के वापिस लौटने का बोध करता है तो दूसरा 'फिर' शारीरिक सौंदर्य के रंग के वापिस लौटने को प्रकट करता है। 'सियरी अग्नि' में विरोधाभास है। प्रेम की ज्वाला व्यक्ति को भीतर ही भीतर जलाती है जो औरों को दिखाई नहीं देती, पर प्रेम करने वाले को जला देती है।
(ii) कवि ने दूसरे छंद में उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है। अनुप्रास तो वर्णों की सुंदरता का आधार बना है। 'घर-घर' और 'कँपि-कँपि' में पुनरुक्ति प्रकाश ने शब्दों पर बल दिया है। इनसे सर्दी की भीषणता प्रकट हुई है।
'सौर सुपती आवे जूड़ी' में विरोधाभास है। रजाई से गर्मी प्राप्त होती है पर विरहिणी नायिका को वह भी सर्दी ही देती है। 'पँखी' में श्लेष अलंकार है जो उसके प्रवासी पति की भी बोध कराता है। 'विरह सैचान' में रूपक अलंकार है। वियोग बाज़ पक्षी के समान दारुण और पीड़ा को बढ़ाने वाला है।